Saturday 13 September 2014

पेड़ों के संरक्षण में झलकता है आदिवासी समुदाय का प्रकृति प्रेम
बीजापुर !   धार्मिक ग्रंथ गीता पर हाथ रखकर झूठी कसम खाने के भी कई उदाहरण देखने को मिल जाएंगे। परन्तु आदिवासी समुदाय को साज पत्ते व अन्य पेड़ों पर हाथ रखकर कसम खिलाई जाए तो वे हरगिज झूठ नहीं बोल सकते। आदिवासी समाज में गोत्रों के नाम पेड़-पौधों व वन्य प्राणियों के आधार पर रखे गए हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि वनों में रहने के चलते पेड़ों एवं वन्य प्राणियों में इनका गहरा जुड़ाव रहा है। आदिवासी समाज में सबसे अधिक महत्व साज के वृक्ष का होता है, वे अपने आराध्य बूढ़ादेव की पूजा साज के पत्तों या पेड़ में करते हैं। यदि किसी आदिवासी को साज के पत्ते की कसम खिलाई जाए तो वह झूठ बोल ही नहीं सकता है, भले ही सच बोलने पर उनकी जान ही चली जाए।
आदिवासी समुदाय का प्रकृति एवं पर्यावरण प्रेम पत्तों से पूरा नहीं होता है, वे अपने कुल देवी-देवताओं को पेड़ों में होना मानते हैं। पीढी-दर-पीढ़ी पेड़ों की पूजा-अर्चना कर उनका संरक्षण-संवर्धन किया जाता है। बूढ़ादेव और लिंगोपेन देव साजा, अमलतास एवं करंज के पेड़ों में वास होना मानते हैं। वनों को देवता तुल्य मानने वाले आदिवासी वनों में निवास करना, वन प्रांतरों में खेती, वनोपज संग्रहण को अपना गौरव मानते हैं। बीजापंडुम एवं तीज-त्यौहारों में वन देवताओं की पूजा की जाती है। बुजुर्गों, पुजारी की मान्यता है कि फिरतीमाता बरगद, शीलता माता, पीपल और गूलर में, मावली माता आम व महुआ में साल, साज में भैरमदेव का वास साल साजा महुआ, आम में मां दुर्गा, सम्मक्का, सारलम्मा मां दंतेश्वरी का वास महुआ एवं बरगद में होता है। नीम पेड़ को श्रेष्ठतम माना जाता है। नीम व बरगद के पेड़ों में आदिवासी समुदाय द्वारा विवाह की रस्में सम्पन्न कराने की परम्परा आज भी कायम है। पेड़ों के शरण स्थल की पांच एकड़ तक परिधि में देव का वास होता है। जामुन वृक्ष की टहनी के संकेत से बताए गए स्थल में नलकूप में कामयाब होना वैज्ञानिक दृष्टिकोण से हैरत बताया जाता है, परन्तु यह प्रमाणित है।
आदिवासी समुदाय पूजते हैं
महुआ, बरगद, आम, पीपल, नींबू, अमरूद, कुल्लू, नीम, मुनगा, केला, ताड़ी, सल्फी, गुलर, बेल एवं कुल 16 प्रकार के पेड़ों को भगवान माना जाता है व इनकी पूजा की जाती है। इनके अलावा 100 प्रकार से यादा वृक्ष, 28 प्रकार की लताएं, 47 प्रकार की  झाड़ियां, 9 प्रकार के बांस, फर्न एवं ब्रायोफाइटा बस्तर के  ययशेष पृष्ठ 3 पर य
जंगलों में आदिवासी समुदाय जान जोखिम में डालकर न केवल पूजा, बल्कि रक्षा भी करते हैं।
जीविकोपार्जन का आधार वन संपदा
आदिवासी समुदाय के जीवनयापन का मुख्य आधार वन संपदा है। वनोपज संग्रहण कर जीविकोपार्जन करने वाले आदिवासी वनों से बेशकीमती जड़ी-बूटियां प्रचुर मात्रा में प्राप्त कर जीवन यापन को खुशहाल बनाते हैं।
वनो से दर्जनों संग्रहण
बस्तर के बहुमूल्य वनों से छ: दर्जन से भी अधिक वनोपज के प्रचार का प्रचुर मात्रा में उत्पादन को संग्रहित किया जाता है। इमली, महुआ, टोरा, आमचूर, चिरौंजी, तिखूर, शहद, चिरायता, मालकांगनी, सर्पगंधा, सतावर, गौरखमुंडी, बैचांदी, वनतुलसी, शिकाकाई, अमलबास, गूंज, मुंड़ी, बेल छिलका, कांटाबहारी, फूलबहारी, शहद, मोम, आंवला, हर्रा, बेहड़ा, सियाड़ी पत्ता, सियाडी रस्सी, कोसासाबुत, कोसा पोला, बाईबिरिंग, थवईफूल, पलास बीज, भेलवाबीज, सागौन बीज, करंजी बीज, अरण्डी बीज,
गोंद, कुल्ले गोंद, निर्मली, कोचला, खोटला बीज, कुंभी फूल, इमली फूल सहित दर्जनों जड़ी-बुटियां वन प्रान्तरों में रहते हैं।
साज के पेड़ का बॉटनिकल नाम टर्मिनेलिया टोमेटोसा है। यह कांब्रीटेसी फैमिली का बहुपयोगी वृक्ष होता है। इस पेड़ को अंग्रेजी में क्रोकोडायल बार्क ट्री भी कहा जाता है। क्योंकि इसकी छाल मगरमच्छ की चमड़ी की तरह होती है। इसकी छाल को पानी में उबालकर इस पानी को पीने से दिल की बीमारियों में राहत मिलती है। इसकी लकड़ी इमारती व काफी मजबूत होती है। इस पेड़ से गाेंद भी मिलता है। बस्तर के सभी जिलों, छग सहित मप्र के बैतूल जिले में साज के पेड़ अधिक मात्रा में मिलते हैं।
नई पीढ़ी को एहसास नहीं
वैज्ञानिकों के शोध एवं अध्ययन से इस बात का खुलासा हुआ कि आदिवासी समाज की नई पीढ़ी को उतनी अधिक जानकारी नहीं है। हालांकि यह जरूर है कि पेड़-पौधों को लेकर आदिवासी समाज अब भी काफी संवेदनशील है।


स्रोत : दैनिक देशबंधु 

अंतरजाल : इक सुप्त ज्वालामुखी

अंतरजाल के इस जमाने में दुनिया कितनी छोटी - सी हो गई है. सात समुन्दर पार वाली बात मानो अब अतीत के गर्त में चली गई हो .पलक झपकते ही भावनाएं कोसो दूर से चली आती हैं या चली जाती हैं. भूमंडलीयकरण के इस दौर में अंतरजाल के माध्यम से ढेरों भावनाएं हर वक़्त जुडी रहती हैं.

भारत और पाकिस्तान के मध्य शीतयुद्ध का दौर कभी - कभी गंभीर हादसों में तब्दील होता है तो अंतरजाल में वैचारिक युद्ध की अंतहीन शुरुआत हो जाती है.इस वैचारिक युद्ध में अश्लीलता की सारी हदें पार कर दी जाती हैं,नैतिकता को दफ़न कर दिया  जाता है. मैंने Social Sites के कई पोस्टों पर इस तरह की वैचारिक युद्ध को होते हुए देखा है. मुझे तो कई बार ऐसा लगने लगता है कि यह सुप्त ज्वालामुखी कभी फट न जाये वास्तविक रूप में.नफरत की यह आग नि:शब्द रूप से दावानल की तरह फैलती ही जाती है.